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Thursday, December 22, 2016

अजंता की गुफाएँ





अजंता गुफाएं महाराष्ट्र, भारत में स्थित पाषाण कट स्थापत्य गुफाएं हैं। यह स्थल द्वितीय शताब्दी ई.पू. के हैं। यहां बौद्ध धर्म से सम्बंधित चित्रण एवं शिल्पकारी के उत्कृष्ट नमूने मिलते हैं।इनके साथ ही सजीव चित्रण भी मिलते हैं। यह गुफाएं अजंता नामक गांवे के सन्निकट ही स्थित हैं, जो कि महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में हैं। अजंता गुफाएं सन 1983 से युनेस्को की विश्व धरोहर स्थल घोषित है।
‘’’नैशनल ज्यॉग्राफिक ‘’’ के अनुसार: आस्था का बहाव ऐसा था, कि ऐसा प्रतीत होता है, जैसे शताब्दियों तक अजंता समेत, लगभग सभी बौद्ध मंदिर, हिन्दू राजाओं के शासन और आश्रय के अधीन बनवाये गये हों।

गुफाएं एक घने जंगल से घिरी, अश्व नाल आकार घाटी में अजंता गांव से 3½ कि॰मी॰ दूर बनीं हैं। यह गांव महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर से 106 कि॰मी॰ दूर बसा है। इसका निकटतम कस्बा है जलगाँव, जो 60 कि॰मी॰ दूर है, भुसावल 70 कि॰मी॰ दूर है। इस घाटी की तलहटी में पहाड़ी धारा वाघूर बहती है। यहां कुल 29 गुफाएं (भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग द्वारा आधिकारिक गणनानुसार) हैं, जो कि नदी द्वारा निर्मित एक प्रपात के दक्षिण में स्थित है। इनकी नदी से ऊंचाई 35 से 110 फीट तक की है।


अजंता का मठ जैसा समूह है, जिसमें कई विहार (मठ आवासीय) एवं चैत्य गृह हैं (स्तूप स्मारक हॉल), जो कि दो चरणों में बने हैं। प्रथम चरण को गलती से हीनयान चरण कहा गया है, जो कि बौद्ध धर्म के हीनयान मत से संबंधित हैं। वस्तुतः हिनायन स्थविरवाद के लिये एक शब्द है, जिसमें बुद्ध की मूर्त रूप से कोई निषेध नहीं है। अजंता की गुफा संख्या 9, 10, 12, 13 15ए (अंतिम गुफा को 1956 में ही खोजा गया और अभि तक संख्यित नहीं किया गया है।) को इस चरण में खोजा गया था। इन खुदाइयों में बुद्ध को स्तूप या मठ रूप में दर्शित किया गया है।
दूसरे चरण की खुदाइयां लगभग तीन शताब्दियों की स्थिरता के बाद खोजी गयीं। इस चरण को भी गलत रूप में महायान चरण ९बौद्ध धर्म का दूसरा बड़ा धड़ा, जो कि कमतर कट्टर है, एवं बुद्ध को सीधे गाय आदि रूप में चित्रों या शिल्पों में दर्शित करने की अनुमति देता है।) कई लोग इस चरण को वाकाटक चरण कहते हैं। यह वत्सगुल्म शाखा के शासित वंश वाकाटक के नाम पर है। इस द्वितीय चरण की निर्माण तिथि कई शिक्षाविदों में विवादित है। हाल के वर्षों में, कुछ बहुमत के संकेत इसे पाँचवीं शताब्दी में मानने लगे हैं। वॉल्टर एम.स्पिंक, एक अजंता विशेषञ के अनुसार महायन गुफाएं 462-480 ई. के बीच निर्मित हुईं थीं।

प्रथम शताब्दी में हुए बौद्ध विचारों में अंतर से, बुद्ध को देवता का दर्जा दिया जाने लगा और उनकी पूजा होने लगी और परिणामतः बुद्ध को पूजा-अर्चना का केन्द्र बनाया गया, जिससे महायन की उत्पत्ति हुई।
पूर्व में, शिक्षाविदों ने गुफाओं को तीन समूहों में बांटा था, किन्तु साक्ष्यों को देखते हुए और शोधों के चलते उसे नकार दिया गया। उस सिद्धांत के अनुसार 200 ई.पू से 200 ई. तक एक समूह, द्वितीय समूह छठी शताब्दी का और तृतीय समूह सातवीं शताब्दी का माना जाता था।
आंग्ल-भारतीयों द्वारा विहारों हेतु प्रयुक्त अभिव्यंजन गुफा-मंदिर अनुपयुक्त माना गया। अजंता एक प्रकार का महाविद्यालय मठ था। ह्वेन त्सांग बताता है, कि दिन्नाग, एक प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक, तत्वज्ञ, जो कि तर्कशास्त्र पर कई ग्रन्थों का लेखक था, यहां रहता था। यह अभी अन्य साक्ष्यों से प्रमाणित होना शेष है। अपने चरम पर, विहार सैंकड़ों को समायोजित करने की सामर्थ्य रखते थे। यहां शिक्षक और छात्र एक साथ रहते थे। यह अति दुःखद है, कि कोई भी वाकाटक चरं की गुफा पूर्ण नहीं है। यह इस कारण हुआ, कि शासक वाकाटक वंश एकाएक शक्ति-विहीन हो गया, जिससे उसकी प्रजा भी संकट में आ गयी। इसी कारण सभी गतिविधियां बाधित होकर एकाएक रुक गयीं। यह समय अजंता का अंतिम काल रहा।

एलीफेंटा की गुफाएँ

घारापुरी गुफाएँ (मराठी: घारापुरीची लेणी; अंग्रेज़ी: एलीफेंटा) भारत में मुम्बई के गेट वे आफ इण्डिया से लगभग १२ किलोमीटर दूर स्थित एक स्थल है जो अपनी कलात्मक गुफ़ाओं के कारण प्रसिद्ध है। यहाँ कुल सात गुफाएँ हैं। मुख्य गुफा में २६ स्तंभ हैं, जिसमें शिव को कई रूपों में उकेरा गया हैं। पहाड़ियों को काटकर बनाई गई ये मूर्तियाँ दक्षिण भारतीय मूर्तिकला से प्रेरित है। इसका ऐतिहासिक नाम घारपुरी है। यह नाम मूल नाम अग्रहारपुरी से निकला हुआ है।एलिफेंटा नाम पुर्तगालियों द्वारा यहाँ पर बने पत्थर के हाथी के कारण दिया गया था।यहाँ हिन्दू धर्म के अनेक देवी देवताओं कि मूर्तियाँ हैं। ये मंदिर पहाड़ियों को काटकर बनाये गए हैं। यहाँ भगवान शंकर की नौ बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ हैं जो शंकर जी के विभिन्न रूपों तथा क्रियाओं को दिखाती हैं। इनमें शिव की त्रिमूर्ति प्रतिमा सबसे आकर्षक है। यह मूर्ति २३ या २४ फीट लम्बी तथा १७ फीट ऊँची है। इस मूर्ति में भगवान शंकर के तीन रूपों का चित्रण किया गया है। इस मूर्ति में शंकर भगवान के मुख पर अपूर्व गम्भीरता दिखती है।

दूसरी मूर्ति शिव के पंचमुखी परमेश्वर रूप की है जिसमें शांति तथा सौम्यता का राज्य है। एक अन्य मूर्ति शंकर जी के अर्धनारीश्वर रूप की है जिसमें दर्शन तथा कला का सुन्दर समन्वय किया गया है। इस प्रतिमा में पुरुष तथा प्रकृति की दो महान शक्तियों को मिला दिया गया है। इसमें शंकर तनकर खड़े दिखाये गये हैं तथा उनका हाथ अभय मुद्रा में दिखाया गया है। उनकी जटा से गंगा, यमुना और सरस्वती की त्रिधारा बहती हुई चित्रित की गई है। एक मूर्ति सदाशिव की चौमुखी में गोलाकार है। यहाँ पर शिव के भैरव रूप का भी सुन्दर चित्रण किया गया है तथा तांडव नृत्य की मुद्रा में भी शिव भगवान को दिखाया गया है। इस दृश्य में गति एवं अभिनय है। इसी कारण अनेक लोगों के विचार से एलिफेण्टा की मूर्तियाँ सबसे अच्छी तथा विशिष्ट मानी गई हैं। यहाँ पर शिव एवं पार्वती के विवाह का भी सुन्दर चित्रण किया गया है।१९८७ में यूनेस्को द्वारा एलीफेंटा गुफ़ाओं को विश्व धरोहर घोषित किया गया है।


यह पाषाण-शिल्पित मंदिर समूह लगभग ६,००० वर्ग फीट के क्षेत्र में फैला है, जिसमें मुख्य कक्ष, दो पार्श्व कक्ष, प्रांगण व दो गौण मंदिर हैं। इन भव्य गुफाओं में सुंदर उभाराकृतियां, शिल्पाकृतियां हैं व साथ ही हिन्दू भगवान शिव को समर्पित एक मंदिर भी है। ये गुफाएँ ठोस पाषाण से काट कर बनायी गई हैं।यह गुफाएं नौंवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक के सिल्हारा वंश (८१००–१२६०) के राजाओं द्वारा निर्मित बतायीं जातीं हैं। कई शिल्पाकृतियां मान्यखेत के राष्ट्रकूट वंश द्वारा बनवायीं हुई हैं



Saturday, July 23, 2016

चंदेरी दुर्ग : मध्य प्रदेश


चंदेरी किला मध्य प्रदेश के गुना के नजदीक अशोक नगर जिले स्थित है। आज चंदेरी यहाँ की कशीदाकारी के काम व साड़ियों के लिए जाना जाता है। प्रसिद्ध संगीतकार बैजू बावरा की कब्र, कटा पहाड़ और राजपूत स्त्रियों के द्वारा किया गया सामूहिक आत्मदाह (जौहर) यहाँ के मुख्य आकर्षण हैं।
बाबर के द्वारा किये गए आक्रमण से यह किला लगभग तबाह हो गया था। कहा जाता है यह किला बाबर के लिए काफी महत्व का था इसलिए उसने चंदेरी के तत्कालीन राजपूत राजा से यह किला माँगा. बदले में उसने अपने जीते हुए कई किलों में से कोई भी किला राजा को देने की पेशकश भी की. परन्तु राजा चंदेरी का किला देने के लिए राजी ना हुआ। तब बाबर् ने किला युद्ध से जीतने की चेतावनी दी. चंदेरी का किला आसपास की पहाड़ियों से घिरा हुआ था इसलिए राजा आश्वस्त् व् निश्चिन्त था। गौरी की सेना में हाथी तोपें और भारी हथियार थे जिन्हें ले कर उन पहाड़ियों के पार जाना दुष्कर था और पहाड़ियों से नीचे उतरते ही चंदेरी के राजा की फौज का सामना हो जाता. कहा जाता है की बाबर निश्चय पर दृढ था और उसने एक ही रात में अपनी सेना से पहाडी को काट डालने का 


अविश्वसनीय कार्य कर डाला. उसकी सेना ने एक ही रात में एक पहाडी को ऊपर से नीचे तक काट कर एक ऐसी दरार बना डाली जिससे हो कर उसकी पूरी सेना और साजो-सामान ठीक किले के सामने पहुँच गयी। सुबह राजा अपने किले के सामने पूरी सेना को देख भौचक्का रह गया। परन्तु राजपूत राजा ने बिना घबराए अपने कुछ सौ सिपाहियों के साथ गौरी की विशाल सेना का सामना करने का निर्णय लिया और अपनी राजपुतनियों को अंतिम विदा कर आत्मघाती युद्ध के लिए प्रस्थान किया। युद्ध में स्वाभाविक तौर पे समस्त राजपूत सेना का खात्मा हो गया। तब किले में सुरक्षित राज्पूत्नियों ने स्वयं को आक्रमणकारी सेना से अपमानित होने की बजाये स्वयं को ख़त्म करने का निर्णय लिया, एक विशाल चिता का निर्माण किया और सभी स्त्रियों ने सुहागनों का श्रृंगार धारण कर के स्वयं को उस चिता के हवाले कर दिया. जब गौरी और उसकी सेना किले के अन्दर पहुँची तो उसके हाथ कुछ ना आया। राजपूतों का शौर्य और राज्पूत्नियों के जौहर के इस अविश्वसनीय कृत्य वह इतना बोखलाया की उसने खुद के लिए इतने महत्त्वपूर्ण किले का संपूर्ण विध्वंस करवा दिया तथा कभी उस का उपयोग नहीं किया। आज भी वह रास्ता टूटे किले की बुर्जों से दिखता है जिसे गौरी ने एक ही रात में पहाडी को कटवा कर बनाया था तथा उसे "कटा पहाड़" या "कटी घाटी" के नाम से जाना जाता है। बाद के एक राजा ने उस जगह पर एक पत्थर का दरवाजा लगवाया. दरवाजे के ऊपर आज भी बाबर् की सेना द्वारा चलायी गई छेनियों के निशान देखे जा सकते हैं।



कलिंजर : उत्तर प्रदेश




उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित कालिंजर बुंदेलखंड का ऐतिहासिक और सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नगर है। प्राचीन काल में यह जेजाकभुक्ति साम्राज्य के अधीन था। यहां का किला भारत के सबसे विशाल और अपराजेय किलों में एक माना जाता है। 9वीं से 15वीं शताब्दी तक यहां चंदेल शासकों का शासन था। चंदेल राजाओं के शासनकाल में कालिंजर पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक,शेर शाह सूरी और हुमांयू ने आक्रमण किए लेकिन जीतने में असफल रहे। अनेक प्रयासों के बावजूद मुगल कालिंजर के किले को जीत नहीं पाए। अन्तत: 1569 में अकबर ने यह किला जीता और अपने नवरत्नों में एक बीरबल को उपहारस्वरूप प्रदान किया। बीरबल क बाद यह किला बुंदेल राजा छत्रसाल के अधीन हो गया। छत्रसाल के बाद किले पर पन्ना के हरदेव शाह का अधिकार हो गया। 1812 में यह किला अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया।



एक समय कालिंजर चारों ओर से ऊंची दीवार से घिरा हुआ था और इसमें चार प्रवेश द्वार थे। वर्तमान में कामता द्वार, पन्ना द्वार और रीवा द्वार नामक तीन प्रवेश द्वार ही शेष बचे हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण यह नगर पर्यटकों को बहुत पसंद आता है। पर्यटक यहां इतिहास से रूबरू होने के लिए नियमित रूप से आते रहते हैं।
विंध्‍य की पहाड़ी पर 700 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह किला इतिहास के उतार-चढ़ावों का प्रत्यक्ष गवाह है। किले में आलमगीर दरवाजा, गणेश द्वार, चौबुरजी दरवाजा, बुद्ध भद्र दरवाजा, हनुमान द्वार, लाल दरवाजा और बारा दरवाजा नामक सात द्वारों से प्रवेश किया जा सकता है। 

किले के भीतर राजा महल और रानी महल नामक शानदार महल बने हुए हैं।
इस मंदिर को चंदेल शासक परमार्दि देव ने बनवाया था। मंदिर में 18 भुजा वाले काल की विशाल प्रतिमा स्थापित है। काल भैरव को भगवान शिव का रौद्र रूप माना जाता है। मंदिर के रास्ते पर भगवान शिव, काल भैरव, गणेश और हनुमान की प्रतिमाओं को पत्थर पर खूबसूरती से उकेरा गया है।



Wednesday, July 20, 2016

दौलताबाद का किला : महाराष्ट्र



दौलताबाद महाराष्ट्र का एक नगर है। इसका प्राचीन नाम देवगिरि है।। मुहम्म्द बिन तुगलक़ की राजधानी। यह औरंगाबाद जिले में स्थित है।

यह शहर हमेशा शक्‍तिशाली बादशाहों के लिए आकर्षण का केंद्र साबित हुआ है। दौलताबाद की सामरिक स्थिति बहुत ही महत्‍वपूर्ण थी। यह उत्तर और दक्षिण भारत के मध्‍य में पड़ता था। यहां से पूरे भारत पर शासन किया जा सकता था। इसी कारणवश बादशाह मुहम्‍मद बिन तुगलक ने इसे अपनी राजधानी बनाया था। उसने दिल्‍ली की समस्‍त जनता को दौलताबाद चलने का आदेश दिया था। लेकिन वहां की खराब स्थिति तथा आम लोगों की तकलीफों के कारण उसे कुछ वर्षों बाद राजधानी पुन: दिल्‍ली लानी पड़ी।
देवगिरि दक्षिण भारत का प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर जो आजकल दौलताबाद के नाम से पुकारा जाता है। महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में २० डिग्री उत्तर अक्षांश तथा ७५ डिग्री पूर्व देशांतर में स्थित है। भीलम नामक राजा ने इसे ११वीं सदी में बसाया था और उसी काल से दो सौ वर्षों तक हिंदू शासकों ने देवगिरि पर शासन किया। १४वीं सदी से यह नगर मुसलमानों के अधिकार में चला आया। देवगिरि के समीप औरंगजेब के मरने पर यह जिला औरंगाबाद कहा जाने लगा।

मथुरा के यादव कुल से देवगिरि के हिंदू शासक संबंध जोड़ते हैं जिस कारण यहाँ का राजवंश 'यादव' कहलाया। हेमाद्री रचित 'ब्रतखंड' में तथा अभिलेखों के आधार पर दृढ़प्रहार देवगिरि के यादव वंश का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष माना जाता है। भीलम शक्तिशाली नरेश था जिसने होयसल, चोल तथा चालुक्य राज्यों पर सफल आक्रमण किया था। उसके उत्तराधिकारी सिंघण ने इसे साम्राज्य का रूप दे दिया। युद्ध के फलस्वरूप देवगिरि राज्य खानदेश से अनंतपुर (मैसूर) तक तथा पश्चिमी घाट से हैदराबाद तक विस्तृत हो गया।

१३वीं सदी के देवगिरि नरेश कृष्ण का नाम अनेक लेखों में मिलता है। इसने वंश की प्रतिष्ठा की अभिवृद्धि की। कृष्ण के पुत्र रामचंद्र के शासन में खिलजी वंश के सुल्तान अलाउद्दीन ने देवगिरि पर चढ़ाई की थी। अलाउद्दीन यहाँ से असंख्य धन लूटकर ले गया और उसके सेनापति काफूर रामचंद्र को बंदी बना लिया। कुछ समय पश्चत् रामचंद्र मुक्त कर दिया गया। यही कारण था कि देवगिरि के राज ने तैलंगाना के युद्ध में काफूर को हथियारों की मदद दी थी। शकंरदेव ने सिंहासन पर बैठने (१३१२ ई.) के बाद मुसलमानों से शत्रुता बढ़ा ली जिसका फल यह हुआ कि शंकरदेव को हराकर काफूर ने देवगिरि पर अधिकार कर लिया।
दौलताबाद किला'-एक उपेक्षित किला ! न शोधकर्ताओं की नज़र पड़ती है न ही इसे संरक्षित रखने के प्रयाप्त उपाय किए जा रहे हैं। कमजोर दीवारें गिर रही हैं।.एक प्राचीन धरोहर भारत खोता जा रहा है ।इतिहास गवाह है -यही एक मात्र एक ऐसा किला है जिसे कभी कोई जीत नहीं सका.
यह भारत के सबसे मजबूत किलों में एक मजबूत किला है। यह तीन मजिला है।यह शाही निवास जैसा ही था। हालांकि, यहाँ मस्जिद और स्नान जैसी सुविधाओं तक पहुँचने में कठिनाई है

Monday, July 18, 2016

जूनागढ़ किला बीकानेर

जूनागढ़ किला बीकानेर के सबसे लोकप्रिय आकर्षण के बीच में गिना जाता है।यह दुर्गम किला राजा राय सिंह द्वारा वर्ष 1593 में बनाया गया था।यह किला अनूप महल, गंगा निवास, जैसे कई खूबसूरत महलों महल, चंद्र महल, फूल महल, करण महल,और शीश महल अदि महलों से घिरा हुआ है।अनूप महल सोने की पत्ती चित्रों के लिए प्रसिद्ध है। चन्द्र महल चूने के प्लास्टर पर किये जाने वाले उत्तम चित्रों से सजा हुआ है।करण महल का निर्माण मुगल बादशाह औरंगजेब के द्वारा बीकानेर के राजाओं के विजय को मनाने के लिए किया गया था।इन महलों का निर्माण लाल बलुआ पत्थर से हुआ है जो कि दुलमेरा के नाम से भी जाना जाता है।
किले की 986 लंबी दीवारें, 37 गढ़ है और दो प्रवेश द्वार है।पर्यटकों के मुख्य प्रवेश द्वार, करण किले के पोल पर हैं। यहाँ किले के अंदर एक मंदिर स्थित है।यह देवी - देवताओं की पूजा के लिए बीकानेर के शाही परिवारों द्वारा इस्तेमाल किया गया था।दरबार हॉल, गज मंदिर, और सूरज पोल किले के अन्य प्रसिद्ध आकर्षण हैं।


जयगढ़ दुर्ग : राजस्थान


जयगढ़ दुर्ग (राजस्थानी: जयगढ़ क़िला) भारत के पश्चिमी राज्य राजस्थान की राजधानी जयपुर में अरावली
पर्वतमाला में चील का टीला नामक पहाड़ी पर आमेर दुर्ग एवं मावता झील के ऊपरी ओर बना किला है।इस दुर्ग का निर्माण जयसिंह द्वितीय ने १७२६ ई. में आमेर दुर्ग एवं महल परिसर की सुरक्षा हेतु करवाया था और इसका नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया है।जयगढ़ दुर्ग को जीत का किला भी कहा जाता है। यह दुर्ग आमेर में स्थित है, जयपुर शहर सीमा में। यह किला १७२६ में बनकर तैयार हुआ था। यहाँ पर विश्व की सबसे बड़ी तोप रखी हुई है।
जयपुर.राजा-रजवाड़े के लिए पूरी दुनिया में फेमस जयपुर में एक ऐसी तोप रखी हुई है, जिसके गोले से शहर से 35 किलोमीटर दूर एक गांव में तालाब बन गया। आज भी यह तालाब मौजूद है और गांव के लोगों की प्यास बुझा रहा है। अरावली की पहाड़ियों पर बना जयगढ़ दुर्ग 1726 ई. में निर्मित इस किले में विश्व की सबसे बड़ी तोप रखी हुई है। जयगढ़ दुर्ग को जीत का किला भी कहा जाता है।


विश्व की सबसे बड़ी यह तोप जयगढ़ किले के डूंगर दरवाजे पर रखी है। तोप की नली से लेकर अंतिम छोर की लंबाई 31 फीट 3 इंच है। जब जयबाण तोप को पहली बार टेस्ट-फायरिंग के लिए चलाया गया था तो जयपुर से करीब 35 किमी दूर स्थित चाकसू नामक कस्बे में गोला गिरने से एक तालाब बन गया था।
35 किलोमीटर तक मार करने वाले इस तोप को एक बार फायर करने के लिए 100 किलो गन पाउडर की जरूरत होती थी। अधिक वजन के कारण इसे किले से बाहर नहीं ले जाया गया और न ही कभी युद्ध में इसका इस्तेमाल किया गया था। इस तोप को सिर्फ एक बार टेस्ट के लिए चलाया गया था। ऐसा कहा जाता है कि किले से दक्षिण की ओर 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित तालाब उसी टेस्ट फायर के गोले के गिरने से बना था।

चित्तौड़गढ़ का दुर्ग: राजस्थान



चित्तौड़गढ़ दुर्ग भारत का सबसे विशाल दुर्ग है। यह राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में स्थित है जो भीलवाड़ा से कुछ किमी दक्षिण में है। यह एक विश्व विरासत स्थल है। चित्तौड़ मेवाड़ की राजधानी थी।
इस किले ने इतिहास के उतार-चढाव देखे हैं। यह इतिहास की सबसे खूनी लड़ाईयों का गवाह है। इसने तीन महान आख्यान और पराक्रम के कुछ सर्वाधिक वीरोचित कार्य देखे हैं जो अभी भी स्थानीय गायकों द्वारा गाए जाते हैं।
काल के बारे में निश्चत तौर पर कुछ कहना थोड़ा मुश्किल है। एक किंवदन्मत के अनुसार पाण्डवों के दूसरे भाई भीम ने इसे करीब ५००० वर्ष पूर्व बनवाया था। इस संबंध में प्रचलित कहानी यह है कि एक बार भीम जब संपत्ति की खोज में निकला तो उसे रास्ते में एक योगी निर्भयनाथ व एक यति कुकड़ेश्वर से भेंट होती है। भीम ने योगी से पारस पत्थर मांगा, जिसे योगी इस शर्त पर देने को राजी हुआ कि वह इस पहाड़ी स्थान पर रातों-रात एक दुर्ग का निर्माण करवा दे। भीम ने अपने शौर्य और देवरुप भाइयों की सहायता से यह कार्य करीब-करीब समाप्त कर ही दिया था, सिर्फ दक्षिणी हिस्से का थोड़ा-सा कार्य शेष था। योगी के ऋदय में कपट ने स्थान ले लिया और उसने यति से मुर्गे की आवाज में बांग देने को कहा, जिससे भीम सवेरा समझकर निर्माण कार्य बंद कर दे और उसे पारस पत्थर नहीं देना पड़े। मुर्गे की बांग सुनते ही भीम को क्रोध आया और उसने क्रोध से अपनी एक लात जमीन पर दे मारी, जिससे वहाँ एक बड़ा सा गड्ढ़ा बन गया, जिसे लोग भी-लत तालाब के नाम से जानते है। वह स्थान जहाँ भीम के घुटने ने विश्राम किया, भीम-घोड़ी कहलाता है। जिस तालाब पर यति ने मुर्गे की बाँग की थी, वह कुकड़ेश्वर कहलाता है।


इतिहासकारों के अनुसार इस किले का निर्माण मौर्यवंशीय राजा चित्रांगद ने सातवीं शताब्दी में करवाया था और इसे अपने नाम पर चित्रकूट के रुप में बसाया। मेवाड़ के प्राचीन सिक्कों पर एक तरफ चित्रकूट नाम अंकित मिलता है। बाद में यह चित्तौड़ कहा जाने लगा। सन् ७३८ में गुहिलवंशी राजा बाप्पा रावल ने राजपूताने पर राज्य करने वाले मौर्यवंश के अंतिम शासक मानमोरी को हराकर यह किला अपने अधिकार में कर लिया। फिर मालवा के परमार राजा मुंज ने इसे गुहिलवंशियों से छीनकर अपने राज्य में मिला लिया। इस प्रकार ९ वीं -१० वीं शताब्दी में इस पर परमारों का आधिपत्य रहा। सन् ११३३ में गुजरात के सोलंकी राजा जयसिंह (सिद्धराज) ने यशोवर्मन को हराकर परमारों से मालवा छीन लिया, जिसके कारण चित्तौड़गढ़ का दुर्ग भी सोलंकियों के अधिकार में आ गया। तदनंतर जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल के भतीजे अजयपाल को परास्त कर मेवाड़ के राजा सामंत सिंह ने सन् ११७४ के आसपास पुनः गुहिलवंशियों का आधिपत्य स्थापित कर दिया। सन् १२१३ से १२५२ तक नागदा के पतन के बाद यहाँ जेत्रसिंह ने इसे राजधानी बनाकर शासन चलाया। सन् १३०३ में यहाँ के रावल रतनसिंह की अल्लाउद्दीन खिलजी से लड़ाई हुई। लड़ाई चितौड़ का प्रथम शाका के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस लड़ाई में अलाउद्दीन खिलजी की विजय हुई और उसने अपने पुत्र खिज्र खाँ को यह राज्य सौंप दिया। खिज्र खाँ ने वापसी पर चित्तौड़ का राजकाज कान्हादेव के भाई मालदेव को सौंप दिया।


बाप्पा रावल के वंशल हमीर ने पुनः मालदेव से यह किला हस्तगत किया। हमीर बड़ा पराक्रमी और दूरदर्शी था। उसने यहाँ ५० वर्षों तक बड़ी योग्यता से शासन करते हुए अपने राज्य का विस्तार किया। उसी के प्रयत्नों से चित्तौड़ का गौरव पुनः स्थापित हो सका। सन् १५३८ में चित्तौड़ पर गुजरात के बहादुरशाह ने आक्रमण कर दिया। इस युद्ध को मेवाड़ का दूसरा शाका के रुप में जाना जाता है। सन् १५६७ में मेवाड़ का तीसरा शाका हुआ, जिसमें अकबर ने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी थी। ये सब मुस्लिम आक्रमण चित्तौड़गढ़ की सांस्कृतिक विनाश का मुख्य कारणों में से एक है। तीसरे शाके के बाद ही सन् १५५९ में महाराणा उदयसिंह ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ से हटाकर अरावली के मध्य पिछोला झील के पास स्थापित कर दी, जो आज उदयपुर के नाम से जाना जाता है।

आमेर दुर्ग: राजस्थान




आमेर का किला जयपुर, राजस्थान के उपनगर आमेर में जयपुर शहर से ११ किमी. दूर स्थित है। यह जयपुर के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है, जो कि पहाड़ी पर स्थित है। आमेर दुर्ग का निर्माण राजा मान सिंह-प्रथम ने करवाया था। आमेर दुर्ग हिन्दू तत्वों की अपनी कलात्मक शैली के लिए जाना जाता है। अपनी विशाल प्राचीर, दरवाजों की श्रंखला और लम्बे सर्पिलाकार रास्ते के साथ यह अपने सामने की ओर स्थित मावठा झील की ओर देखता हुआ खड़ा है।
अपनी विशाल प्राचीर, दरवाजों की श्रंखला और लम्बे सर्पिलाकार रास्ते के साथ यह अपने सामने की ओर स्थित मावठा झील की ओर देखता हुआ खड़ा है।इस अजेय दुर्ग का सौंदर्य इसकी चारदीवारी के भीतर मौजूद इसके चार स्तरीय लेआउट प्लान में स्पष्ट दिखाई पड़ता है, जिसमें लाल बलुआ पत्थर और संगमरमर से निर्मित दीवान-ऐ-आम या "आम जनता के लिए विशाल प्रांगण", दीवान-ऐ-ख़ास या "निजी प्रयोग के लिए बना प्रांगण", भव्य शीश महल या जय मंदिर तथा सुख निवास शामिल हैं, जिन्हें गर्मियों में ठंडा रखने के लिए दुर्ग के भीतर ही कृत्रिम रूप से बनाये गए पानी के झरने इसकी समृद्धि की कहानी कहते हैं। इसीलिये, यह आमेर दुर्ग "आमेर महल" के नाम से भी जाना जाता है।

 राजपूत महाराजा अपने परिवारों के साथ इस महल में रहा करते थे। महल के प्रवेश द्वार पर, किले के गणेश द्वार के साथ चैतन्य सम्प्रदाय की आराध्य माँ शिला देवी का मंदिर स्थित है।यह आमेर का किला, जयगढ़ दुर्ग के साथ, अरावली पर्वत श्रृंखला पर चील के टीले के ठीक ऊपर इस प्रकार स्थित है कि ये दो अलग अलग किले होते हुए भी समग्र रूप में एक विशाल संरचना का रूप लेते हुए दिखाई पड़ते हैं क्योंकि दोनों किले ना सिर्फ एक दूसरे के बेहद करीब स्थित हैं, बल्कि एक सुरंग के रास्ते से दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए भी हैं।

 आमेर के किले से जयगढ़ के किले तक की यह सुरंग इस उद्देश्य से बनायी गयी थी कि युद्ध के समय में राज परिवार के लोग आसानी से आमेर के किले से जयगढ़ के किले में पहुँच सकें, जो कि आमेर के किले की तुलना में अधिक दुर्जेय है।यह मुगलों और हिन्दूओं के वास्तुशिल्प का मिलाजुला और अद्वितीय नमूना है। जयपुर से पहले कछवाहा राजपूत राजवंश की राजधानी आमेर ही थी। राजा मानसिंह जी ने वर्ष १५९२ में इसका निर्माण आरंभ किया था। पहाड़ी पर बना यह महल टेढ़े मेढ़े रास्तों और दीवारों से पटा पड़ा है। महल के पीछे से जयगढ दिखाई देता है।
 महल को बनाने में लाल पत्थरों और सफ़ेद मार्बल का बहुत अच्छे से उपयोग किया गया है। महल के कई अनुभाग देखने योग्य हैं।महल में जय मंदिर, शीश महल, सुख निवास और गणेश पोल देखने और घूमने के अच्छे स्थान हैं। इन्हें समय-समय पर राजा मानसिंह ने दो सदी के शासन काल के दौरान बनवाया था। आमेर का पुराना नगर महल के पास नीचे की ओर बसा था। यहाँ का जगत शिरोमणि मंदिर, नरसिंह मंदिर देखने योग्य हैं।

जैसलमेर दुर्ग : जैसलमेर


जैसलमेर दुर्ग स्थापत्य कला की दृष्टि से उच्चकोटि की विशुद्ध स्थानीय दुर्ग रचना है। ये दुर्ग २५० फीट तिकोनाकार पहाङ्ी पर स्थित है। इस पहाङ्ी की लंबाई १५० फीट व चौङाई ७५० फीट है।

रावल जैसल ने अपनी स्वतंत्र राजधानी स्थापित की थी। स्थानीय स्रोतों के अनुसार इस दुर्ग का निर्माण ११५६ ई. में प्रारंभ हुआ था। परंतु समकालीन साक्ष्यों के अध्ययन से पता चलता है कि इसका निर्माण कार्य ११७८ ई. के लगभग प्रारंभ हुआ था। ५ वर्ष के अल्प निर्माण कार्य के उपरांत रावल जैसल की मृत्यु हो गयी, इसके द्वारा प्रारंभ कराए गए निमार्ण कार्य को उसके उत्तराधिकारी शालीवाहन द्वारा जारी रखकर दुर्ग को मूर्त रुप दिया गया। रावल जैसल व शालीवाहन द्वारा कराए गए कार्यो का कोई अभिलेखीय साक्ष्य नहीं मिलता है। मात्र ख्यातों व तवारीखों से वर्णन मिलता है।
जैसलमेर दुर्ग मुस्लिम शैली विशेषतः मुगल स्थापत्य से पृथक है। यहाँ मुगलकालीन किलों की तङ्क-भङ्क, बाग-बगीचे, नहरें-फव्वारें आदि का पूर्ण अभाव है, चित्तौ के दुर्ग की भांति यहां महल, मंदिर, प्रशासकों व जन-साधारण हेतु मकान बने हुए हैं, जो आज भी जन-साधारण के निवास स्थल है
जैसलमेर दुर्ग पीले पत्थरों के विशाल खण्डों से निर्मित है। पूरे दुर्ग में कहीं भी चूना या गारे का इस्तेमाल नहीं किया गया है। मात्र पत्थर पर पत्थर जमाकर फंसाकर या खांचा देकर रखा हुआ है। दुर्ग की पहाङ्ी की तलहटी में चारों ओर १५ से २० फीट ऊँचा घाघरानुमा परकोट खिचा हुआ है, इसके बाद २०० फीट की ऊँचाई पर एक परकोट है, जो १० से १५६ फीट ऊँचा है। इस परकोट में गोल बुर्ज व तोप व बंदूक चलाने हेतु कंगूरों के मध्य बेलनाकार विशाल पत्थर रखा है। गोल व बेलनाकार पत्थरों का प्रयोग निचली दीवार से चढ़कर ऊपर आने वाले शत्रुओं के ऊपर लुढ़का कर उन्हें हताहत करने में बडें ही कारीगर होते थे, युद्ध उपरांत उन्हें पुनः अपने स्थान पर लाकर रख दिया जाता था। इस कोट के ५ से १० फीट ऊँची पूर्व दीवार के अनुरुप ही अन्य दीवार है। इस दीवार में ९९ बुर्ज बने है। इन बुर्जो को काफी बाद में महारावल भीम और मोहनदास ने बनवाया था। बुर्ज के खुले ऊपरी भाग में तोप तथा बंदुक चलाने हेतु विशाल कंगूरे बने हैं। बुर्ज के नीचे कमरे बने हैं, जो युद्ध के समय में सैनिकों का अस्थाई आवास तथा अस्र-शस्रों के भंडारण के काम आते थे।

इन कमरों के बाहर की ओर झूलते हुए छज्जे बने हैं, इनका उपयोग युद्ध-काल में शत्रु की गतिविधियों को छिपकर देखने तथा निगरानी रखने के काम आते थे। इन ९९ बुर्जो का निर्माण कार्य रावल जैसल के समय में आरंभ किया गया था, इसके उत्तराधिकारियों द्वारा सतत् रुपेण जारी रखते हुए शालीवाहन (११९० से १२०० ई.) जैत सिंह (१५०० से १५२७ ई.) भीम (१५७७ से १६१३ ई.) मनोहर दास (१६२७ से १६५० ई.) के समय पूरा किया गया। इस प्रकार हमें दुर्ग के निर्माण में कई शताब्दियों के निर्माण कार्य की शैली दृष्टिगोचर होती है।
दुर्ग के मुख्य द्वारा का नाम अखैपोला है, जो महारवल अखैसिंह (१७२२ से १७६२ ई.) द्वारा निर्मित कराया गया था। यह दुर्ग के पूर्व में स्थित मुख्य द्वार के बाहर बहुत बङा दालान छोङ्कर बनाया गया है। इसके कारण दुर्ग के मुख्य द्वार पर यकायक हमला नहीं किया जा सकता था। दुर्ग के दूसरे मुख्य द्वार का पुनः निर्माण कार्य रावल भीम द्वारा कराया गया था। इसके अतिरिक्त इस दरवाजे के आगे स्थित बैरीशाल बुर्ज है, इसे इस प्रकार बनाया गया है कि दुर्ग का मुख्य द्वारा इसकी ओट में आ गया व दरवाजे के सामने का स्थान इतना संकरा हो गया कि यकायक बहुत बङ्ी संख्या में शत्रुदल इसमें प्रवेश नहीं कर सकता था व न ही हाथियो की सहायता से दुर्ग के द्वार को तोङा जा सकता था। इसके अलावा भीम ने सात अन्य बुर्ज भी दुर्ग में निर्मित कराए थे। इन समस्त निर्माण कार्यो में रावल भीम ने उस समय ५० लाख रुपया खर्च किया था। अपने द्वारा सामरिक दृष्टि से दुर्ग की व्यवस्था के संबंध में रावल भीम का कथन था कि दूसरा आवे तो मैदान में बैठा जबाव दे सकता है और दिल्ली का धनी आवे तो कैसा ही गढ़ हो रह नही सकता।

दुर्ग के तीसरे दरवाजे के गणेश पोल व चौथे दरवाजे को रंगपोल के नाम से जाना जाता है। सभी दरवाजे रावल भीम द्वारा पुनः निर्मित है। सूरज पोल की तरु बढ़ने पर हमें रणछो मंदिर मिलता है, जिसका निर्माण १७६१ ई. में महारावल अखैसिंह की माता द्वारा करावाया गया था। सूरज-पोल द्वारा का निर्माण महारावल भीम के द्वारा करवाया गया है। इस दरवाजे के मेहराबनुमा तोरण के ऊपर में सूर्य की आकृति बनी हुई है।
दुर्ग में विभिन्न राजाओं द्वारा निर्मित कई महल, मंदिर व अन्य विभिन्न उपयोग में आने वाले भवन हुए हैं। जैसलमेर दुर्ग में ७०० के करीब पक्के पत्थरों के मकान बने हैं, जो तीन मंजिलें तक हैं। इन मकानों के सामने के भाग में सुंदर नक्काशी युक्त झरोखें व खिड़कियां हैं।
दुर्ग के स्थित महलों में हरराज का मालिया सर्वोत्तम विलास, रंगमहल, मोतीमहल तथा गजविलास आदि प्रमुख है। सर्वोत्तम विलास एक अत्यंत सुंदर व भव्य इमारत है, जिसमें मध्य एशिया की नीली चीनी मिट्टी की टाइलों व यूरोपीय आयातित कांचों का बहुत सुंदर जड़ाऊ काम किया गया है। इस भवन का निर्माण महारावल अखैसिंह (१७२२-६२) द्वारा करवाया गया था। इसे वर्तमान में शीशमहल के नाम से जाना जाता है। इस महल को "अखैविलास" के नाम से भी जाना जाता है। महारावल मूलराज द्वितीय (१७६२-१८२० ई.) द्वारा हवापोल के ऊपरी भाग में एक महल का निमार्ण कराया गया था। इसमें एक विशाल हॉल व दालान है। इनकी दीवारों पर बहुत ही सुंदर नक्काशी व काँच के जड़ाऊ काम का उत्तम प्रतीक है। यह तीन मंजिला है, जिसमें प्रथम तल पर राज सभा का विशाल कक्ष है। द्वितीय मंजिल पर खुली छत, कुछ कमरे व सुंदर झरोखों से युक्त कटावदार बारादरियाँ हैं। जैसलमेर दुर्ग की रचना व स्थापत्य तथा वहाँ निर्मित भव्य महल, भवन, मंदिर आदि इसे और भी अधिक भव्यता प्रदान करते हैं। पीले पत्थरों से निर्मित यह दुर्ग दूर से स्वर्ण दुर्ग का आभास कराता है।

गोलकोण्डा का किला : हैदराबाद


 

गोलकोण्डा का किला

गोलकुंडा या गोलकोण्डा दक्षिणी भारत में, हैदराबाद नगर से पाँच मील पश्चिम स्थित एक दुर्ग तथा ध्वस्त नगर है। पूर्वकाल में यह कुतबशाही राज्य में मिलनेवाले हीरे-जवाहरातों के लिये प्रसिद्ध था।
इस दुर्ग का निर्माण वारंगल के राजा ने 14वीं शताब्दी में कराया था। बाद में यह बहमनी राजाओं के हाथ में चला गया और मुहम्मदनगर कहलाने लगा। 1512 ई. में यह कुतबशाही राजाओं के अधिकार में आया और वर्तमान हैदराबाद के शिलान्यास के समय तक उनकी राजधानी रहा। फिर 1687 ई. में इसे औरंगजेब ने जीत लिया। यह ग्रैनाइट की एक पहाड़ी पर बना है जिसमें कुल आठ दरवाजे हैं और पत्थर की तीन मील लंबी मजबूत दीवार से घिरा है। यहाँ के महलों तथा मस्जिदों के खंडहर अपने प्राचीन गौरव गरिमा की कहानी सुनाते हैं। मूसी नदी दुर्ग के दक्षिण में बहती है। दुर्ग से लगभग आधा मील उत्तर कुतबशाही राजाओं के ग्रैनाइट पत्थर के मकबरे हैं जो टूटी फूटी अवस्था में अब भी विद्यमान हैं।



ग्वालियर का किला : ग्वालियर


  ग्वालियर का किला :  ग्वालियर
लाल बलुए पत्थर से बना यह किला शहर की हर दिशा से दिखाई देता है। एक ऊंचे पठार पर बने इस किले तक पहुंचने के लिये दो रास्ते हैं। एक ग्वालियर गेट कहलाता है एवं इस रास्ते सिर्फ पैदल चढा जा सकता है। गाडियां ऊरवाई गेट नामक रास्ते से चढ सकती हैं और यहां एक बेहद ऊंची चढाई वाली पतली सड़क से होकर जाना होता है। इस सडक़ के आर्सपास की बडी-बडी चट्टानों पर जैन तीर्थकंरों की अतिविशाल मूर्तियां बेहद खूबसूरती से और बारीकी से गढी गई हैं। किले की तीन सौ पचास फीट उंचाई इस किले के अविजित होने की गवाह है। इस किले के भीतरी हिस्सों में मध्यकालीन स्थापत्य के अद्भुत नमूने स्थित हैं। पन्द्रहवीं शताब्दी में निर्मित गूजरी महल उनमें से एक है जो राजा मानसिंह और गूजरी रानी मृगनयनी के गहन प्रेम का प्रतीक है। इस महल के बाहरी भाग को उसके मूल स्वरूप में राज्य के पुरातत्व विभाग ने सप्रयास सुरक्षित रखा है किन्तु आन्तरिक हिस्से को संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया है जहां दुर्लभ प्राचीन मूर्तियां रखी गई हैं जो कार्बन डेटिंग के अनुसार प्रथम शती ईस्वी की हैं। ये दुर्लभ मूर्तियां ग्वालियर के आसपास के इलाकों से प्राप्त हुई हैं।




पिछले 1000 वर्षों से अधिक समय से यह किला ग्‍वालियर शहर में मौजूद है। भारत के सर्वाधिक दुर्भेद्य किलों में से एक यह विशालकाय किला कई हाथों से गुजरा। इसे बलुआ पत्थर की पहाड़ी पर निर्मित किया गया है और यह मैदानी क्षेत्र से 100 मीटर ऊंचाई पर है। किले की बाहरी दीवार लगभग 2 मील लंबी है और इसकी चौड़ाई 1 किलोमीटर से लेकर 200 मीटर तक है। किले की दीवारें एकदम खड़ी चढ़ाई वाली हैं। यह किला उथल-पुथल के युग में कई लडाइयों का गवाह रहा है साथ ही शांति के दौर में इसने अनेक उत्‍सव भी मनाए हैं। इसके शासकों में किले के साथ न्‍याय किया, जिसमें अनेक लोगों को बंदी बनाकर रखा। किले में आयोजित किए जाने वाले आयोजन भव्‍य हुआ करते हैं किन्‍तु जौहरों की आवाज़ें कानों को चीर जाती है।

लाल किला : दिल्ली


लाल किला एवं शाहजहाँनाबाद का शहर, मुगल बादशाह शाहजहाँ द्वारा ई स 1639 में बनवाया गया था। लाल किले का अभिन्यास फिर से किया गया था, जिससे इसे सलीमगढ़ किले के संग एकीकृत किया जा सके। यह किला एवं महल शाहजहाँनाबाद की मध्यकालीन नगरी का महत्वपूर्ण केन्द्र-बिन्दु रहा है। लालकिले की योजना, व्यवस्था एवं सौन्दर्य मुगल सृजनात्मकता का शिरोबिन्दु है, जो कि शाहजहाँ के काल में अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँची। इस किले के निर्माण के बाद कई विकास कार्य स्वयं शाहजहाँ द्वारा किए गए। विकास के कई बड़े पहलू औरंगजे़ब एवं अंतिम मुगल शासकों द्वारा किये गये। सम्पूर्ण विन्यास में कई मूलभूत बदलाव ब्रिटिश काल में 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद किये गये थे। ब्रिटिश काल में यह किला मुख्यतः छावनी रूप में प्रयोग किया गया था। बल्कि स्वतंत्रता के बाद भी इसके कई महत्वपूर्ण भाग सेना के नियंत्रण में 2003 तक रहे।
लाल किला मुगल बादशाह शाहजहाँ की नई राजधानी, शाहजहाँनाबाद का महल था। यह दिल्ली शहर की सातवीं मुस्लिम नगरी थी। उसने अपनी राजधानी को आगरा से दिल्ली बदला, अपने शासन की प्रतिष्ठा बढ़ाने हेतु, साथ ही अपनी नये-नये निर्माण कराने की महत्वकाँक्षा को नए मौके देने हेतु भी। इसमें उसकी मुख्य रुचि भी थी।


यह किला भी ताजमहल की भांति ही यमुना नदी के किनारे पर स्थित है। वही नदी का जल इस किले को घेरकर खाई को भरती थी। इसके पूर्वोत्तरी ओर की दीवार एक पुराने किले से लगी थी, जिसे सलीमगढ़ का किला भी कहते हैं। सलीमगढ़ का किला इस्लाम शाह सूरी ने 1546 में बनवाया था। लालकिले का निर्माण 1638 में आरम्भ होकर 1648 में पूर्ण हुआ। पर कुछ मतों के अनुसार इसे लालकोट का एक पुरातन किला एवं नगरी बताते हैं, जिसे शाहजहाँ ने कब्जा़ करके यह किला बनवाया था। लालकोट हिन्दु राजा पृथ्वीराज चौहान की बारहवीं सदी के अन्तिम दौर में राजधानी थी।

11 मार्च 1783 को, सिखों ने लालकिले में प्रवेश कर दीवान-ए-आम पर कब्जा़ कर लिया। नगर को मुगल वजी़रों ने अपने सिख साथियों का समर्पण कर दिया। यह कार्य करोर सिंहिया मिस्ल के सरदार बघेल सिंह धालीवाल के कमान में हुआ।


लालकिला सलीमगढ़ के पूर्वी छोर पर स्थित है। इसको अपना नाम लाल बलुआ पत्थर की प्राचीर एवं दीवार के कारण मिला है। यही इसकी चार दीवारी बनाती है। यह दीवार 1.5 मील (2.5 किमी) लम्बी है और नदी के किनारे से इसकी ऊँचाई 60 फीट (16मी), तथा 110 फीट (35 मी) ऊँची शहर की ओर से है। इसके नाप जोख करने पर ज्ञात हुआ है, कि इसकी योजना एक 82 मी की वर्गाकार ग्रिड (चौखाने) का प्रयोग कर बनाई गई है।

लाल किले की योजना पूर्ण रूप से की गई थी और इसके बाद के बदलावों ने भी इसकी योजना के मूलरूप में कोई बदलाव नहीं होने दिया है। 18वीं सदी में कुछ लुटेरों एवं आक्रमणकारियों द्वारा इसके कई भागों को क्षति पहुँचाई गई थी। 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद, किले को ब्रिटिश सेना के मुख्यालय के रूप में प्रयोग किया जाने लगा था। इस सेना ने इसके करीब अस्सी प्रतिशत मण्डपों तथा उद्यानों को नष्ट कर दिया। . इन नष्ट हुए बागों एवं बचे भागों को पुनर्स्थापित करने की योजना सन 1903 में उमैद दानिश द्वारा चलाई गई।
हमाम के पश्चिम में मोती मस्जिद बनी है। यह सन् 1659 में, बाद में बनाई गई थी, जो औरंगजे़ब की निजी मस्जिद थी। यह एक छोटी तीन गुम्बद वाली, तराशे हुए श्वेत संगमर्मर से निर्मित है। इसका मुख्य फलक तीन मेहराबों से युक्त है, एवं आंगन में उतरता है।जहा फुलो का मेला है


मेहरानगढ़ किला : जोधपुर

























मेहरानगढ़ किला : जोधपुर

मेहरानगढ किला भारत के राजस्थान प्रांत में जोधपुर शहर में स्थित है। पन्द्रहवी शताब्दी का यह विशालकाय किला, पथरीली चट्टान पहाड़ी पर, मैदान से १२५ मीटर ऊँचाई पर स्थित है और आठ द्वारों व अनगिनत बुर्जों से युक्त दस किलोमीटर लंबी ऊँची दीवार से घिरा है। बाहर से अदृश्य, घुमावदार सड़कों से जुड़े इस किले के चार द्वार हैं। किले के अंदर कई भव्य महल, अद्भुत नक्काशीदार किवाड़, जालीदार खिड़कियाँ और प्रेरित करने वाले नाम हैं। इनमें से उल्लेखनीय हैं मोती महल, फूल महल, शीश महल, सिलेह खाना, दौलत खाना आदि। इन महलों में भारतीय राजवेशों के साज सामान का विस्मयकारी संग्रह निहित है। इसके अतिरिक्त पालकियाँ, हाथियों के हौदे, विभिन्न शैलियों के लघु चित्रों, संगीत वाद्य, पोशाकों व फर्नीचर का आश्चर्यजनक संग्रह भी है।

यह किला भारत के प्राचीनतम किलों में से एक है और भारत के समृद्धशाली अतीत का प्रतीक है। राव जोधा जोधपुर के राजा रणमल की २४ संतानों मे से एक थे। वे जोधपुर के पंद्रहवें शासक बने। शासन की बागडोर सम्भालने के एक साल बाद राव जोधा को लगने लगा कि मंडोर का किला असुरक्षित है। उन्होने अपने तत्कालीन किले से ९ किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर नया किला बनाने का विचार प्रस्तुत किया। इस पहाड़ी को भोर चिडिया के नाम से जाना जाता था, क्योंकि वहाँ काफ़ी पक्षी रहते थे। राव जोधा ने १२ मई १४५९ को इस पहाडी पर किले की नीव डाली महाराज जसवंत सिंह (१६३८-७८) ने इसे पूरा किया। मूल रूप से किले के सात द्वार (पोल) (आठवाँ द्वार गुप्त है) हैं। प्रथम द्वार पर हाथियों के हमले से बचाव के लिए नुकीली कीलें लगी हैं। अन्य द्वारों में शामिल जयपोल द्वार का निर्माण १८०६ में महाराज मान सिंह ने अपनी जयपुर और बीकानेर पर विजय प्राप्ति के बाद करवाया था। फतेह पोल अथवा विजय द्वार का निर्माण महाराज अजीत सिंह ने मुगलों पर अपनी विजय की स्मृति में करवाया था।

 मेहरानगढ किले के समीप चामुंडा माता का मंदिर बनवाया औराव जोधा को चामुँडा माता मे अथाह श्रद्धा थी। चामुंडा जोधपुर के शासकों की कुलदेवी होती है। राव जोधा ने १४६० मेर मूर्ति  स्थापना की। मंदिर के द्वार आम जनता के लिए भी खोले गए थे। चामुंडा माँ मात्र शासकों की ही नहीं बल्कि अधिसंकीख्य जोधपुर निवासियों की कुलदेवी थी और आज भी लाखों लोग इस देवी को पूजते हैं। नवरात्रि के दिनों मे यहाँ विशेष पूजा अर्चना की जाती है।